बात विश्वविद्यालय के दिनों की है। मेरे कुछ करीबी मित्रों में से एक से चर्चा के दौरान उन्होंने कहा - "मैं सदैव चाहता था कि मेरा जीवन ड्रामेटिक हो।" क़रीब चार साल बाद आज मेरे मन में इस वाक्य ने वापस दस्तक दी। मैं सोचने लगा कि कैसे किसी का जीवन ड्रामेटिक हो सकता है? ड्रामेटिक होने की परिभाषा क्या है? और कि क्या ऐसा होना ज़रूरी भी है? अगर है तो कितना? क्या इतना कि इसे चाहा जाए या कि जीवन का एक बड़ा उद्देश्य बनाया जाए? या इतना कि इसके बारे में बात की जाए?
अरस्तू ने 'ड्रामा' को परिभाषित किया है। वो कहते हैं कि ड्रामा वो काव्यात्मक रचना है जिसे दर्शकों के सामने अभिनय द्वारा प्रस्तुत किया जाए। हालाँकि इस परिभाषा के हिसाब से देखा जाए तो जीवन अभिनय और मृत्यु पटाक्षेप के अतिरिक्त और कुछ नहीं ज्ञात होती है। खैर उतने गहरे में ना जाकर इसे कुछ इस तरीके से यदि देखें तो हम ड्रामा उसे कहते हैं जिनमें ड्रामेटिक एलिमेंट्स हों। अब ड्रामेटिक एलिमेंट्स क्या होते हैं इसपर अनेक विद्वानों ने समय - समय पर अपने मत रखे हैं। कोई 4, कोई 7 तो कोई 10 कहते हैं। पर मूलभूत बात यही है कि ड्रामेटिक एलिमेंट्स वो होते हैं जिनसे दर्शकों की ड्रामा देखने में रूचि बनी रहे।
अब यदि "जीवन ड्रामेटिक है या नहीं" का निर्धारण करना हो तो जीवन के ड्रामेटिक एलिमेंट्स को समझना होगा। साहित्यकार जब ड्रामा लिखता है तो उस कृति में होने वाली हर घटना किस प्रकार होनी है इसका निर्धारण वह स्वयं करता है। पर यदि जीवन की बात करें तो हमारा नियंत्रण नगण्य है। अर्थात एक नज़रिया तो यह भी हो सकता है कि प्रत्येक जीवन ही ड्रामेटिक है क्योंकि जीवन की प्रत्येक घटना अनिर्धारित और अकस्मात् होती हैं, ड्रामेटिक एलिमेंट होती है। तो क्या यह इच्छा ही निरर्थक नहीं कि जीवन ड्रामेटिक हो?
एक किसान हर रोज़ खेत के बीच जाकर बड़े से पीपल या बरगद के पेड़ के नीचे बने मचान पर बैठता है, वहीं खाता है, रहता है। उसके लिए वो कतई ड्रामेटिक नहीं है (या शायद हो, मैंने बस एक उदहारण लिया है)। मैं यदि रेल में बैठा खिड़की से उस किसान को देखूं तो मैं ज़रूर सोचूंगा कि यदि मैं वहां होता तो कितना खूबसूरत होता! ठंढी हवा चलती, गर्मी का मौसम है बच्चे खेल रहे होते मेरे आस-पास और मैं मटके में रखे ठंढे पानी को पीकर दिन में वहीँ शायद सो जाता पेड़ के नीचे। कितना खूबसूरत! कितना शांत! कितना ड्रामेटिक! अर्थात जीवन ड्रामेटिक है या नहीं यह व्यक्ति उसको लेकर ओब्सर्वेन्ट है या नहीं इसपे निर्धारित होता है।
पर ड्रामेटिक जीवन की आवश्यकता क्यों? हमारी सभ्यता आज जिस स्थान पर पहुंची है उसमें भाषा का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। भाषा ने हमें कहानियां गढ़ने का अवसर प्रदान किया और आज सारा का सारा खेल कहानियां गढ़ने, नैरेटिव बनाने का ही तो है! जिसकी कहानी जितनी अच्छी, वो व्यक्ति उतने लम्बे समय तक याद रखा जाएगा। अनंत उदहारण हैं इसके। अर्थात जीवन ड्रामेटिक हो यह ज़रूरी तो है यदि आप याद रखा जाना चाहते हों तो। पर जीवन गढ़ते तो सभी हैं, आकार चाहे जो भी हो पर निराकार किसी का जीवन नहीं होता। प्रत्येक का जीवन एक कहानी है फिर क्यों केवल कुछ ही कहानियां हम जानते हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं? क्यूंकि शायद अपनी कहानी हर व्यक्ति कहता नहीं है। पर इसका मतलब ये नहीं कि उनके जीवन में कम ड्रामा है, कम ड्रामेटिक एलिमेंट्स हैं।
कुल मिलकर यदि आप अपनी कहानी चाहते हैं, अपनी लेगेसी चाहते हैं, चाहते हैं कि आप याद रखे जाएं तो कहानी कहनी होगी। ड्रामेटिक जीवन की इच्छा अनिवार्य है। ऑब्जरवेंट बने रहना अनिवार्य है। जब तक कहानियां हैं तब तक आप हैं। कहानियां खतम तो आप भी खतम। फिर चाहे सांस चल रही हो या आप जा चुके हों!
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