01

नामकरण

प्रिय सार्थक,

बीते कई दिनों से तुम्हें ढूंढने की कोशिश कर रहा हूँ । क्यूँ ? पता नहीं। कैसे ? पता नहीं। बस अनवरत तुम्हारी खोज में विचलित सा हूँ जैसे विचलित होता है निर्वात - उत्पन्न होने के तुरंत बाद वायु के लिए। तुम्हारा साथ न होना निर्वात ही तो है। जीवन का एक मात्र लक्ष्य स्वयं को प्राप्त करना मात्र नहीं तो और क्या है! किन्तु तुम जब मैं ही हूँ तो तुम्हें ढूंढने की क्या आवश्यकता? क्या तुम्हें ढूंढने भर से मैं द्वैत उत्पन्न नहीं कर रहा? क्या "तुम" कहने भर से द्वैतभास उत्पन्न नहीं हो जाता? पर्सोनिफिकेशन कहाँ तक सही है? या कि शायद सही और गलत से दूर जाने के लिए ही मैं स्वयं को स्वयं से मिलाने के प्रयास में हूँ? और यदि हूँ तो ये क्या मेरी कायरता है या मेरा साहस?

आज तुम्हें एक नाम दिया है, पर तुम्हें नाम देने वाला मैं कौन हूँ? नाम देने का अधिकार तो जनन करने वालों का होता है। तो क्या तुम मेरी उत्पत्ति हो? तुम्हारी खोज मैंने एक सखा, मित्र और गुरु के रूप में की है। उत्पत्ति से मित्रता और गुरु भाव तो संभव है पर सखापन ? सखापन तो संभव नहीं! पर तुम, जो एक व्यक्ति नहीं किन्तु जिसके व्यक्तित्व का विकास जीवन से घटते जा रहे हर एक क्षण के साथ हो रहा है, मेरे लिए क्या होगे इसका निर्णय शायद इन क्षणों को ही करना है। नियतिवाद का विरोधी होने के बावजूद मैं यह निर्णय नियति पर, या यूँ कहूं कि इन बीतते हुए क्षणों में हमारे निर्णयों पे छोड़ता हूँ!

तुमसे पुनः वार्ता होगी। होती रहेगी। होना आवश्यक है । क्यूँ ? ज्ञात होने पर अवश्य बताऊंगा।

तुम्हारा (न जाने क्या)

Write a comment ...

Write a comment ...